द्विराष्ट्र के सिद्धांत के जनक कौन- जिन्ना या सावरकर?
1937 में सावरकर ने द्विराष्ट्र सिद्धांत की स्पष्ट सार्वजनिक अभिव्यक्ति की किन्तु इसके बीज तो उनके द्वारा 1923 में रचित हिंदुत्व नामक पुस्तक में ही बड़ी स्पष्टता से उपस्थित थे।
जिन्ना और उनके सहयोगी द्विराष्ट्र के सिद्धांत का जहर भारतीय समाज में फैलाने और देश के विभाजन हेतु अवश्य ही उत्तरदायी हैं किंतु देश के बंटवारे में सावरकर के विचारों की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। संघ परिवार द्वारा स्वीकृत और प्रशंसित इतिहासकार आर सी मजूमदार लिखते हैं- साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार एक बड़ा कारक “हिन्दू महासभा” थी जिसका नेतृत्व महान क्रांतिकारी नेता वी डी सावरकर कर रहे थे। (स्ट्रगल फ़ॉर फ्रीडम, भारतीय विद्या भवन, 1969, पृष्ठ 611) आम्बेडकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया(1946) में सावरकर के द्विराष्ट्र सिद्धांत और अखंड भारत की उनकी अवधारणा के छद्म को उजागर किया है। आंबेडकर लिखते हैं- वे चाहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र प्रधान राष्ट्र हो और मुस्लिम राष्ट्र इसके अधीन सेवक राष्ट्र हो। यह समझ पाना कठिन है कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के बीच शत्रुता का बीज बोने के बाद सावरकर यह इच्छा क्यों कर रहे हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक संविधान के अधीन एक देश में रहना चाहिए।(पृष्ठ 133-134)
15 अगस्त 1943 को सावरकर ने नागपुर में कहा- मेरा श्री जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है। हम हिन्दू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग अलग राष्ट्र हैं। (निरंजन तकले द्वारा उद्धृत द वीक, अ लैम्ब लायनाइज़ड,24 जनवरी 2016) इसी आलेख में निरंजन सावरकर और तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो की मुंबई में 9 अक्टूबर 1939 को हुई मुलाकात का उल्लेख करते हैं जिसके बाद लिनलिथगो ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया लार्ड ज़ेटलैंड को एक रिपोर्ट भेजी जिसमें लिखा गया था- सावरकर ने कहा स्थिति अब यह है कि महामहिम की सरकार हिंदुओं की ओर उन्मुख हो और उनके सहयोग से कार्य करे। – सावरकर के अनुसार अब हमारे हित एक जैसे थे और हमें एक साथ कार्य करना आवश्यक था। उन्होंने कहा- हमारे हित परस्पर इतनी नजदीकी से जुड़े हुए हैं कि हिंदुइज्म और ग्रेट ब्रिटेन के लिए मित्रता जरूरी है और पुरानी शत्रुता अब महत्वहीन हो गई है।
एक ऐतिहासिक प्रसंग और है जो सावरकर की पसंद और प्राथमिकताओं को दर्शाता है। यह भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक परिदृश्य के सबसे विवादित व्यक्तित्वों में से एक सी पी रामास्वामी से संबंधित है। अतिशय महत्वाकांक्षी, स्वेच्छाचारी, सिद्धांतहीन, अधिनायकवादी चिंतन से संचालित और पुन्नापरा वायलार विद्रोह के बर्बर दमन के कारण जनता में अलोकप्रिय सी पी रामास्वामी ने 18 जून 1946 को त्रावणकोर के महाराजा को अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित करने के लिए दुष्प्रेरित किया। सी पी रामास्वामी ने इसके बाद पाकिस्तान के लिए अपना प्रतिनिधि भी नियुक्त कर दिया। 20 जून 1946 को सी पी रामास्वामी को जिन्ना का तार मिला जिसमें उन्होंने सी पी के कदम की प्रशंसा की थी। किंतु इसी दिन एक और तार उन्हें प्राप्त हुआ, शायद वे इसकी अपेक्षा भी नहीं कर रहे थे- यह तार था सावरकर का- जिसमें उन्होंने हिन्दू राज्य त्रावणकोर की स्वतंत्रता की घोषणा के दूरदर्शितापूर्ण और साहसिक निर्णय के लिए सी पी की भूरि भूरि प्रशंसा की थी। (अ नेशनल हीरो, ए जी नूरानी, फ्रंट लाइन, वॉल्यूम 21, इशू 22, अक्टूबर 23 से नवंबर 5, 2004)
मनु एस पिल्लई ने उल्लेख किया है कि सावरकर ने 1944 में जयपुर के राजा को लिखे एक पत्र में हिन्दू महासभा की रणनीति का खुलासा करते हुए बताया कि हिन्दू महासभा कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और मुसलमानों से हिन्दू राज्यों के सम्मान, स्थिरता और शक्ति की रक्षा के लिए हमेशा उनके साथ खड़ी है। सावरकर ने लिखा हिन्दू राज्य हिन्दू शक्ति के केंद्र हैं और इसलिए वे स्वाभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में सहायक होंगे। राजाओं ने सावरकर के विचारों पर एकदम अमल तो नहीं किया किन्तु उनके विचारों से सहमति व्यक्त की और अनेक राजाओं के साथ हिन्दू महासभा की बैठकें भी हुईं। ये बैठकें मैसूर और बड़ोदा जैसे आधुनिक और विकसित रियासतों के साथ भी हुईं किंतु हिन्दू महासभा को खूब समर्थन परंपरावादी रियासतों से ही मिला।(सावरकरस थ्वार्टेड रेसियल ड्रीम, 28 मई 2018,लाइव मिंट)।
इन राजाओं की रुचि हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में कम और अपने शानोशौकत तथा ऐशोआराम भरे जीवन को जारी रखने में अधिक थी तथा ये ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी वफादारी व्यक्त करने के ज्यादा इच्छुक थे। इन राजाओं की रियासतों के छोटे आकार, आपसी बिखराव और जनता में इनकी अलोकप्रियता के कारण हिन्दू राष्ट्र निर्माण का सावरकर का सपना साकार नहीं हो पाया।
(लेखक डॉ राजू पाण्डेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार, गांधीवादी चिंतक थे।)
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