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सावरकर भारतीय संविधान के कटु आलोचक रहे,कहते थे- इसमें कुछ भी भारतीय नहीं

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सावरकर 1857 के स्वाधीनता संग्राम के अपने विश्लेषण में परंपरावादी और कट्टर धार्मिक शक्तियों के साथ खड़े नजर आते हैं। वे लिखते हैं- सरकार हिन्दू और मुसलमान धर्मों की बुनियाद को नष्ट करने के लिए एक के बाद एक कानून पारित करना प्रारंभ कर चुकी थी। रेलवे का निर्माण हो चुका था और रेल गाड़ी के डब्बों की रचना इस प्रकार हुई थी कि यह हिंदुओं के जाति संबंधी पूर्वाग्रहों को ठेस पहुंचाता था। जब सावरकर शुद्धि बंदी जैसी रूढ़ियों के उन्मूलन की चर्चा करते हैं तो उनका उद्देश्य अंतर्धार्मिक विवाह को प्रोत्साहन देकर धार्मिक प्रतिबंधों को तोड़ना नहीं है अपितु वे पराजित धार्मिक समुदाय की स्त्रियों से विवाह और बहुपत्नी प्रथा का अवलंबन लेकर विजयी धार्मिक समुदाय की जनसंख्या बढ़ाने की रणनीति को सही ठहरा रहे होते हैं। इसी प्रकार सावरकर के मतानुसार शुद्धि बंदी की कुरीति के कारण बलात धर्मांतरण के शिकार हुए लाखों लाख हिंदुओं की घर वापसी नहीं हो सकी। समुद्र यात्रा बंदी की कुरीति के उन्मूलन की चर्चा सावरकर बार बार करते हैं किंतु उनके मतानुसार इस कुरीति के कारण आर्यों के साम्राज्य का विस्तार और हिन्दू धर...

सावरकर की इतिहास दृष्टि को जानने के लिए उनका निबंध -हिन्दू संगठनकर्ता पढ़ना चाहिए

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सावरकर की इतिहास दृष्टि को जानने के लिए उनका निबंध -हिन्दू संगठनकर्ता स्वतंत्रता का इतिहास किस तरह लिखें और पढ़ें- अत्यंत महत्वपूर्ण है। ज्योतिर्मय शर्मा अपने आलेख 'हिस्ट्री एज रिबेलियन एंड रेटेलिएशन : रीरीडिंग सावरकर’स द वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857' में लिखते हैं - "राष्ट्रीय दृष्टि से आर्य या अनार्य ब्राह्मण या शूद्र, वैदिक या अवैदिक, शैव या वैष्णव जैन या बौद्ध जैसे अंतर अथवा विभेद सावरकर के लिए अर्थहीन हैं।" सावरकर की दृष्टि में केवल एक ही बात महत्वपूर्ण है और वह यह है कि “हमारे सामूहिक जीवन को केवल एक शब्द द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है और वह अनूठा शब्द है हिन्दू।“ (सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 445)।  ज्योतिर्मय शर्मा के अनुसार सावरकर की दृष्टि में इतिहास दो भिन्न तरीकों से लिखा जाना चाहिए। एक इतिहास तो हिन्दू राष्ट्र का होना चाहिए और दूसरा इतिहास हिन्दू राष्ट्र के मुसलमानों के साथ हुए युद्ध का भी होना चाहिए। सावरकर मानते हैं कि हमारा इतिहास कुछ शानदार और कुछ शर्मनाक असहज करने वाले पलों को समेटे है लेकिन इसे आर्य और अनार्य इतिहास के रूप में न लिखा ...

सावरकर के दर्शन में प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के तत्व कितने (भाग -2)

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सावरकर की हिंसा और प्रतिशोध की विचारधारा को समझने के लिए उनकी पुस्तक भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ का अध्ययन आवश्यक है। इस पुस्तक में भारतीय इतिहास का पांचवां स्वर्णिम पृष्ठ शीर्षक खण्ड के चतुर्थ अध्याय को सावरकर ने “सद्गुण विकृति” शीर्षक दिया है। इस अध्याय में सावरकर लिखते हैं- "राजा जयसिंह ने पुनरुद्धारित सोमनाथ की पैदल यात्रा की। वह महान शिवभक्त था। हिन्दू धर्म पर उसकी अत्यधिक आस्था थी। संभवतः इसी कारण मुसलमानों के समान शत्रुओं को उसने अपने राज्य से निकाल बाहर नहीं किया। सोमनाथ सहित अनेक हिन्दू मंदिर नष्ट भ्रष्ट करने वाले उन म्लेच्छों को हिन्दू नहीं बनाया। अपितु अपने राज्य की परधर्म सहिष्णुता और उदारता प्रदर्शित करने के लिए हिंदुओं के खर्चे से मुसलमानों की गिरी मस्जिदें पुनः बनवाकर उन्हें राज्य का संरक्षण प्रदान किया। इसके विपरीत महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी आदि तत्कालीन सुल्तानों के समय में दिल्ली से लेकर मालवा तक के उनके राज्य में कोई भी। हिन्दू अपने मंदिरों के विध्वंस के संबंध एक अक्षर भी उच्चारित करने का साहस नहीं कर सकता था। उसकी चर्चा करना उस राज्य में भय...

सावरकर के दर्शन में प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के तत्व कितने (भाग -1)

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सावरकर के आधुनिक पाठ में उन्हें वैज्ञानिक, आधुनिक और तार्किक हिंदुत्व के प्रणेता तथा हिन्दू राष्ट्रवाद के जनक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। रणनीति कुछ ऐसी है कि जब सावरकर के इन कथित विचारों को प्रचारित किया जाता है तो इनकी तुलना अनिवार्य रूप से गांधी जी के विचारों के साथ की जाती है। गांधी जी को वर्ण व्यवस्था के पोषक, परंपरावादी, दकियानूस होने की हद तक धर्मभीरु और अतार्किक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है-  एक ऐसा व्यक्ति जो सावरकर के प्रखर तर्कों के आगे निरुत्तर हो गया है किंतु अपना अनुचित हठ छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। दरअसल ऐसा है नहीं। सावरकर के चिंतन का सार संक्षेप चंद शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है- हिंसा, प्रतिशोध, घृणा, बर्बरता। आक्रामक तथा क्रूर हिन्दू राष्ट्र की स्थापना उनका स्वप्न था। सावरकर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक हिंदुत्व में हिंदुत्व को निम्नानुसार परिभाषित किया- "हिन्दू वही है जो सिंधु नदी से सिंधु समुद्र पर्यंत विस्तृत इस देश को अपनी पितृ भूमि मानता है, जो रक्त संबंध से उस जाति का वंशधर है जिसका प्रथम उद्गम वैदिक सप्त सिन्धुओं में हुआ औ...

सावरकर के माफीनामा की भाषा दीनता की चरम सीमा का स्पर्श

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सावरकर द्वारा दिए जाने वाले माफीनामों की भाषा उत्तरोत्तर दीनता की चरम सीमा को स्पर्श करती दिखती है, उदाहरण स्वरूप 1913 में उनके द्वारा भेजी गई दूसरी क्षमादान याचिका के अंतिम हिस्से पर गौर किया जा सकता है- "अंत में मैं महामहिम को यह स्मरण दिलाना चाहता हूं कि वह मेरी क्षमादान याचिका पर विचार करे, जिसे मैंने 1911 में भेजा था और उसे स्वीकृत कर भारत सरकार को भेजे। भारत की राजनीति की नवीनतम परिस्थितियों और सरकार की समन्वय की नीति ने फिर एक बार संवैधानिक रास्ते को खोल दिया है। अब कोई भी व्यक्ति जो हिंदुस्तान और मानवता का दिल से भला चाहता हो वह उन कंटकाकीर्ण रास्तों पर आंख मूंदकर नहीं चलेगा जैसा कि 1906-1907 के उत्तेजित करने वाली और नाउम्मीदी से भरी परिस्थितियों में हमने किया तथा अमन एवं तरक्की के मार्ग को त्याग दिया था।" सावरकर लिखते हैं- "इसलिए सरकार यदि अपने बहुविध एहसान एवं दया की भावना के तहत मुझे रिहा करेगी तो मैं इस संवैधानिक तरक्की तथा अंग्रेज सरकार से वफादारी का सबसे बड़ा हिमायती बनूंगा, जो आज उन्नति की पूर्वशर्त है… इसके अलावा संवैधानिक मार्ग पर मेरा लौटना भ...

क्या सावरकर की जीवन यात्रा को दो भागों में मूल्यांकित करना चाहिए?

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क्या सावरकर की जीवन यात्रा को दो भागों में मूल्यांकित करना ठीक है? क्या उनके जीवन का गौरवशाली और उदार हिस्सा वह है जब वे -1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम- पुस्तक की रचना(आरंभ 1907- पूर्णता-1909) करते हैं। इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि यह 1857 के  विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम की व्यापकता प्रदान करती है। बाद में क्रांतिकारी गतिविधियों में संलिप्तता के कारण सावरकर को अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया जाता है। अंडमान की इस जेल की भयंकर यातनाओं से सावरकर का मनोबल शायद कमजोर होने लगता है। विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि इसके बाद सावरकर का एक नया रूप देखने में आता है जो कट्टर हिंदूवादी है और जिसे सर्वसमावेशी राष्ट्रीय आंदोलन से कुछ लेना देना नहीं है। किंतु 1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम सावरकर की दृष्टि में स्वतंत्रताकामी भारतीय जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उनके अनुसार यह ईसाई धर्म के खिलाफ हिंदुओं और मुस्लिमों का विद्रोह है। वे जस्टिन मैकार्थी को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- हिन्दू और मुसलमान अपनी पुरानी धार्मिक शत्रुता को भुलाकर ईसाइयों के खिला...

द्विराष्ट्र के सिद्धांत के जनक कौन- जिन्ना या सावरकर?

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पिछले चार पांच वर्ष से वी डी सावरकर को प्रखर राष्ट्रवादी सिद्ध करने का एक अघोषित अभियान कतिपय इतिहासकारों द्वारा अकादमिक स्तर पर अघोषित रूप से चलाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर भी सावरकर को महिमामण्डित करने वाली पोस्ट्स बहुत सुनियोजित रूप से यूज़र्स तक पहुंचाई जा रही हैं। अब ऐसा लगता है कि यह अभियान सरकारी स्वीकृति प्राप्त कर रहा है। किंतु जब ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन किया जाता है तब हमें यह ज्ञात होता है कि सावरकर किसी विचारधारा विशेष के जनक अवश्य हो सकते हैं किंतु भारतीय स्वाधीनता संग्राम के किसी उज्ज्वल एवं निर्विवाद सितारे के रूप में उन्हें प्रस्तुत करने के लिए कल्पना, अर्धसत्यों तथा असत्यों का कोई ऐसा कॉकटेल ही बनाया जा सकता है जो नशीला भी होगा और नुकसानदेह भी। जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया- हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो। सावरकर ने 1941 में हिन्दू महासभा के भागलपुर अधिवेशन को संबोधित करते हुए कहा कि- हमें इस बात...