समीक्षा : अमन और भाईचारे का उद्घोष - अजय सहाब का शेरी मजमूआ - मैं उर्दू बोलूं
यदि आप अमनपसंद हैं, कौमी एकता के हिमायती हैं, हमारी गंगा जमनी तहजीब आपकी रगों में समाई हुई है, आप धार्मिक कट्टरता की आलोचना में सेलेक्टिव नहीं हैं एवं तर्क पर आधारित, बराबरी और जम्हूरियत पसंद समाज बनाना आपका सपना है तो
अजय सहाब का शेरी मजमूआ - मैं उर्दू बोलूं - आपकी घरेलू लाइब्रेरी में जरूर और जरूर मौजूद होना चाहिए। Book Avilable here
किताब का शीर्षक- मैं उर्दू बोलूं- न केवल मौजूं है बल्कि यह इस या उस मुल्क और मज़हब की फिरकापरस्त और कट्टरपंथी ताकतों के लिए शायर का एक स्टेटमेंट है- उर्दू ज़बान को- या व्यापक तौर पर कहें तो किसी भी जिंदा ज़बान को- देश और धर्म की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता।
जब हम अजय सहाब के -मैं उर्दू बोलूं - से गुजरते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि देवनागरी में इस शेरी मजमूए का प्रकाशन केवल पाठकीय सुविधा की दृष्टि से नहीं किया गया है बल्कि इसके पीछे सहाब का एक व्यापक, बहुत गहरा उद्देश्य भी है। उनके जेहन में हिंदी-उर्दू विवाद का वह लंबा तल्ख सिलसिला कहीं बहुत गहरे पैठा हुआ है जिसने न केवल हिंदी और उर्दू को संकीर्ण बनाने की कोशिश की बल्कि हिंदू-मुसलमानों को एक दूसरे से दूर करने की नई वजह भी गढ़ी जो जबान को मजहब से जोड़ने की शरारत पर आधारित थी।
आज जब हिंदी के तत्समीकरण और उर्दू के फारसीकरण की आहट सोशल मीडिया के जरिए सुनाई देती है; हिंदी और उर्दू को दो दुश्मन जबानों की तरह पेश करने के लिए मिथ्या इतिहास पर आधारित वायरल पोस्ट्स विमर्श में फेंकी जाती हैं तब भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी अजय सहाब द्वारा साहित्य सृजन के लिए उर्दू का चयन और अपनी रचनाओं को देवनागरी में प्रकाशित करने का निर्णय इस देश के सेकुलर कैरेक्टर को बचाने की किसी मुहिम का बुलंद ऐलान लगता है। अजय ने अपनी रचनाओं का हिंदी अनुवाद नहीं किया क्योंकि उनका उद्देश्य कुछ और था। लिपि के विवाद ने देश के बंटवारे में योगदान दिया था, आज देवनागरी के माध्यम से अजय सहाब उर्दू की मोहब्बत फैलाने की और लोगों को जोड़ने की ताक़त को उजागर कर रहे हैं।
'मैं उर्दू बोलूँ' को समझने के लिए हमें उर्दू अदब की उस ट्रेडिशन को समझना होगा अजय सहाब जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वह परंपरा है जो उर्दू को भारत की आजादी की लड़ाई की ज़बान बना देती है।आज़ादी की लड़ाई के 'इंकलाब जिंदाबाद' जैसे कुछ सबसे पॉपुलर नारे और लहू में गर्मी पैदा कर देने वाले कुछ बेहतरीन शेर उर्दू के ही तो हैं।
यदि सेकुलर शब्द के अर्थ को समझना है, आत्मसात करना है, जीना है तो 'मैं उर्दू बोलूँ' से अच्छी मार्गदर्शिका कोई दूसरी नहीं हो सकती। दूसरे के धर्म की आलोचना और अपने धर्म की कमियों पर चुप लगा जाना अजय साहब को मंजूर नहीं है। आज जब संकीर्णता, धार्मिक कट्टरता और धर्मांधता देश के राजनीतिक-सांस्कृतिक विमर्श को संचालित कर रहे हैं तब बेख़ौफ़ होकर इस सारे पाखंड का भंडाफोड़ किया है। अभिव्यक्ति के खतरे उठाए हैं और मठों और गढ़ों पर आक्रमण किया है और इसीलिए मठाधीश उन्हें चर्चा से बाहर करने की कोशिश कर रहे हैं।
उर्दू अजय सहाब के लिए कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति का जरिया भी है और जड़ समाज में क्रांतिचेतना उत्पन्न करने में सक्षम विस्फोटक भाषा भी-
बात नफ़रत की हो करनी तो ज़बानें हैं कई
जब मुझे प्यार जताना हो मैं उर्दू बोलूं
बर्फ़ सी ठंडी फ़जाओं में भी लफ्जों से सहाब
आग के फूल खिलाना हो मैं उर्दू बोलूं(पृष्ठ 17)
अजय सहाब जब उस अज्ञात से कुछ मांगते हैं तो यह सिर्फ और सिर्फ एक अमनपसंद और आपस मे मोहब्बत करने वाला हिन्दोस्तान है। अजय सहाब के लिए मानव धर्म सर्वोपरि है-
वो अवाम दे मेरे हिन्द को, जो बंटे न फ़िरक़ों के नाम पर
वो जो मंदिरों में भी गा सके, जो हुई सहर तो अजान दे
मुझे एक रोटी मिले अगर, तेरे साथ उसको भी बांट लूं
जहाँ सिर्फ मैं ही समा सकूं, न वो इतना तंग मकान दे (पृष्ठ 35)
हिन्दोस्तान की गंगा-जमनी तहज़ीब को अगर महसूस करना है तो हमें उर्दू के पास बैठना-बतियाना होगा-
है मेरे हिन्द की तहज़ीब की पैकर उर्दू
अपनी इस साझा विरासत की है दुख्तर उर्दू
हिन्द की मिट्टी का हर रंग मिला है तुझमें
सारी नदियों से बनी है तू समंदर उर्दू(पृष्ठ 70)
चाहे वे मुस्लिम कट्टरपंथी हों या धर्मांध हिन्दू, अगर वे उर्दू और हिंदी को किसी खास मजहब की भाषा बनाना चाहेंगे तो अजय सहाब के लिए यह नाक़ाबिलेबर्दाश्त है-
हिंदी को मत लड़ाइये उर्दू ज़बान से
दुनिया की हर ज़बान को रहना है शान से
लफ़्ज़ों का सिर्फ फ़र्क़ है, माँ है जमीन-ए- हिन्द
दोनों का बचपना कटा एक ही मकान से(पृष्ठ 151)
धर्म ने हमें बाँटने के अलावा किया क्या है किंतु अजय सहाब के मंदिर में केवल प्यार को जगह मिलेगी-
कहीं मंदिर न बनने से किसी का राम ख़तरे में
कहीं बस छींक दे कोई तो है इस्लाम खतरे में
यूं ही लड़ता रहा इंसा तो ऐ धरती जरा सुनले
तेरी हर सुबह ख़तरे में तेरी हर शाम ख़तरे में
मैं शाइर हूँ मुझे बस प्यार के मंदिर बनाने हैं
मेरे मंदिर में हैं सब असनाम ख़तरे में(पृष्ठ 158)
(लेखक डॉ राजू पाण्डेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार, गांधीवादी चिंतक हैं।)
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