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अशोक स्तम्भ विवाद: जो कुछ हो रहा है वह अप्रत्याशित नहीं

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सेंट्रल विस्टा की ऊपरी मंजिल पर स्थापित अशोक स्तंभ की प्रतिकृति के अनावरण के बाद से प्रारंभ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। देश के अनेक जाने माने इतिहासकार अशोक स्तम्भ के मूल स्वरूप के साथ हुई छेड़छाड़ से आहत हैं। हरबंस मुखिया, राजमोहन गांधी, कुणाल चक्रवर्ती तथा नयनजोत लाहिड़ी आदि अनेक इतिहासकारों के मतानुसार अशोक स्तम्भ की वर्तमान प्रतिकृति में शेरों का स्वरूप मूल अशोक स्तंभ से अलग है और ये मूल अशोक स्तंभ के शेरों की भांति शांति और स्थिरता नहीं दर्शाते। इन सभी इतिहासकारों का मानना है कि यद्यपि शेरों की प्रकृति आक्रामक होती है किंतु अशोक स्तम्भ के शेरों की मुख मुद्रा ऐसी नहीं है। ऐसा लगता है कि ये हमें संरक्षण दे रहे हैं। इनमें गरिमा, आंतरिक शक्ति एवं आत्मविश्वास परिलक्षित होते हैं। अशोक स्तम्भ के शेर शांति प्रिय, शान्तिकामी और शांति के रक्षक हैं। इनके चेहरे पर दयालुता का भाव है। जबकि नए संसद भवन की छत पर स्थापित प्रतिकृति में शेरों की भाव भंगिमा में गुस्सा है, अशांति है, आक्रामकता है।  प्रतिकृति में दिखने वाले शेरों के दांत अधिक तीखे, बड़े और स्पष्ट हैं। यह हिंसा और आक्र...

पहली नागरिक के रूप में कितना कारगर साबित होंगी मुर्मू

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संविधान निर्माताओं समेत स्वाधीनता संग्राम से मंज-तपकर निकले सिद्धान्तनिष्ठ और खरे राजनेताओं की उस पुरानी पीढ़ी ने (जिसे यह पता था कि हमारा लोकतंत्र कितना बहुमूल्य है) यह कल्पना तक नहीं की होगी कि राज्यपाल और राष्ट्रपति जैसे पद बहुत स्थूल व निम्नस्तरीय राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्धि का माध्यम बन जाएंगे। यह कौन सोच सकता था कि इन गरिमामय पदों का उपयोग वयोवृद्ध नेताओं की सक्रिय राजनीति से स्वैच्छिक अथवा जबरन सेवानिवृत्ति के बाद पुनर्वास के लिए तो होगा ही; भारतीय राजनीति के प्रभावशाली राजनीतिक घरानों के प्रति चरम समर्पण, सेवाभाव एवं भक्ति दिखाने वाले राज नेताओं को पुरस्कृत करने के लिए भी यह पद प्रयुक्त होंगे।  राज्यपालों और राष्ट्रपतियों की भूमिकाओं पर भी राजनीतिक रंग चढ़ा। केंद्र द्वारा उन राज्यों के लिए चयनित राज्यपाल जिनमें केंद्र में सत्तारूढ़ दल की उन राज्यों में भी सरकार थी, बड़ी शांति से ऐश्वर्यशाली जीवन और राजसी सुख सुविधाओं का आनंद लेते नजर आए किंतु जैसे ही विधानसभा चुनावों में सत्ता परिवर्तन हुआ और विरोधी दल की सरकार बनी उन्हें राज्यपाल के अधिकारों, कर्त्तव्यों और शक्ति...

संविधान पर संकट: भारतीयकरण या ब्राह्मणीकरण

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(लेखक डॉ राजू पाण्डेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार, गांधीवादी चिंतक हैं।) न्याय प्रणाली में मनुवादी सोच की पुनर्प्रतिष्ठा के प्रयासों को न्याय व्यवस्था के भारतीयकरण का नाम दिया जा रहा है। नागरिक अधिकारों और संविधान के संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय पर यदि ब्राह्मणवादी सोच हावी हो गई तब संविधान पर भी संकट आ सकता है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल से ही संविधान के भारतीयकरण की मांग कट्टर हिंदूवादी संगठनों और भाजपा के कुछ बड़बोले बयानवीरों द्वारा उठाई जाती रही है। बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रखर विरोध के कारण सरकार संविधान से छेड़छाड़ का साहस तो नहीं कर पाई है किंतु संविधान का एक धर्म सम्मत पाठ तैयार करने की कोशिश अवश्य की गई है जो संविधान की मूल प्रवृत्ति से सर्वथा असंगत है। लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला जब संविधान को "हमारे लिए पवित्र 'गीता' महाग्रंथ के आधुनिक संस्करण की तरह" बताते हैं और राष्ट्रपति आदरणीय रामनाथ कोविंद कहते हैं कि "हर सांसद का यह दायित्व बनता है कि वे संसद रूपी लोकतंत्र के इस मंदिर में उसी श्रद्धा भाव से अपना आचरण करें,...

समीक्षा : अमन और भाईचारे का उद्घोष - अजय सहाब का शेरी मजमूआ - मैं उर्दू बोलूं

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यदि आप अमनपसंद हैं, कौमी एकता के हिमायती हैं, हमारी गंगा जमनी तहजीब आपकी रगों में समाई हुई है, आप धार्मिक कट्टरता की आलोचना में सेलेक्टिव नहीं हैं एवं तर्क पर आधारित, बराबरी और जम्हूरियत पसंद समाज बनाना आपका सपना है तो  अजय सहाब का शेरी मजमूआ - मैं उर्दू बोलूं - आपकी घरेलू लाइब्रेरी में जरूर और जरूर मौजूद होना चाहिए।  Book Avilable here किताब का शीर्षक- मैं उर्दू बोलूं- न केवल मौजूं है बल्कि यह इस या उस मुल्क और मज़हब की फिरकापरस्त और कट्टरपंथी ताकतों के लिए शायर का एक स्टेटमेंट है- उर्दू ज़बान को- या व्यापक तौर पर कहें तो किसी भी जिंदा ज़बान को- देश और धर्म की सीमाओं में कैद नहीं किया जा सकता। जब हम अजय सहाब के -मैं उर्दू बोलूं - से गुजरते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि देवनागरी में इस शेरी मजमूए का प्रकाशन केवल पाठकीय सुविधा की दृष्टि से नहीं किया गया है बल्कि इसके पीछे सहाब का एक व्यापक, बहुत गहरा उद्देश्य भी है। उनके जेहन में हिंदी-उर्दू विवाद का वह लंबा तल्ख सिलसिला कहीं बहुत गहरे पैठा हुआ है जिसने न केवल हिंदी और उर्दू को संकीर्ण बनाने की कोशिश की बल्कि हिंदू-मु...

“किसान जो धरती की सेवा करता है वही तो सच्चा पृथ्वीपति है उसे सरकार से क्यों डरना है।“

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(लेखक  डॉ राजू पाण्डेय  छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार,  गांधीवादी  चिंतक हैं।) शहीद दिवस पर विशेष: वर्तमान किसान आंदोलन और गांधी का पुनर्पाठ  "गांधी जी की दृष्टि में किसान और हिंदुस्तान एक दूसरे के पर्याय हैं। अहिंसा और निर्भयता किसान का मूल स्वभाव हैं और शोषण तथा दमन के विरुद्ध सत्याग्रह उनका बुनियादी अधिकार। जीवन में अनेक ऐसे अवसर आए जब गांधी जी को अपना परिचय देने की आवश्यकता पड़ी और हर बार उन्होंने स्वयं की पहचान किसान ही बताई। 1922 में राजद्रोह के मुकदमे का सामना कर रहे गांधी अहमदाबाद में एक विशेष अदालत के सामने स्वयं का परिचय एक किसान और बुनकर के रूप में देते हैं। पुनः नवंबर 1929 में अहमदाबाद में नवजीवन ट्रस्ट के लिए दिए गए घोषणापत्र के अनुसार भी गांधी स्वयं को पेशे से किसान और बुनकर बताते हैं। बहुत बाद में सितंबर 1945 में गाँधी जी भंडारकर ओरिएंटल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च पूना की यात्रा करते हैं। उनके साथ सरदार वल्लभ भाई पटेल और राजकुमारी अमृत कौर भी हैं। पुनः संस्थान की विजिटर्स बुक में गांधी अपना परिचय एक किसान के रूप...