"सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।"


इस चौपाई के साथ लाख चाहने पर भी अपनी लेखनी को नहीं रोक सका क्यूंकि देश भर में रामनवमी पर आयोजित भव्य शोभा यात्राओं ने आनंदित कम चिंतित अधिक किया। राम शब्द का उच्चारण होते ही जिस शांति, स्थिरता, धैर्य, आश्वासन और अनुशासन का अनुभव होता है उसकी तलाश इन शोभा यात्राओं में व्यर्थ थी। राम संकीर्तन की परंपरा में अनेक ऐसी पारंपरिक और आधुनिक संगीत रचनाएं हैं जो अपनी कोमलता और मृदुलता के लिए विख्यात हैं, जिन्हे सुनने के ताप हर लेता है। किंतु इन शोभा यात्राओं में किसी देशव्यापी अलिखित अज्ञात सहमति से कुछ निहायत ही ओछे और भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे। यह तय कर पाना कठिन था कि डीजे का शोर अधिक कर्ण कटु और भयानक था या इन नारों के बोल, बहरहाल दोनों का सामंजस्य उस भय को पैदा करने में अवश्य सफल हो रहा था जिसकी उत्पत्ति इन शोभा यात्राओं का अभीष्ट थी। यह ध्वनि प्रहार इतना भीषण था कि तुलसी मानस के मर्मज्ञ उन सैकड़ों चौपाइयों और दोहों को क्षतविक्षत पा रहे थे जिन्होंने -"सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।" के मंत्र को हमारे सामाजिक जीवन का मूल राग बनाने में अहम भूमिका निभाई है। 

इन भव्य शोभायात्राओं में बहुत कुछ ऐसा था जो खटकने वाला था लेकिन हिंसा को स्वीकार्य बनाने के लिए कट्टरपंथी शक्तियों द्वारा संचालित मानसिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शायद पूर्ण हो चुका है और हममें से अधिकांश संभवतः इसमें ए प्लस ग्रेड भी अर्जित कर चुके हैं इसलिए इन शोभा यात्राओं का हिंसक, अराजक, आक्रामक और प्रदर्शनप्रिय स्वरूप भी हमें आनंददायी लगा। पिछले कुछ वर्षों से कुछ ऐसे ही विचार सोशल मीडिया पर भी पढ़ने को मिले। एक बुद्धिजीवी ने रामनवमी के संदर्भ में पोस्ट किए गए एक कथन ने चौंकाया - "यदि भविष्य में हिंदुत्व का अस्तित्व बचाना चाहते हैं तो साधारण हिन्दू नहीं, कट्टर हिन्दू बनें। यही वर्तमान समय की मांग है।" मैंने उनसे पूछा कि 2014 के बाद से ऐसा क्या बदला है कि हमारी प्राचीन संस्कृति संकट में आ गई है। उनसे हिंदुत्व शब्द के उद्गम और अर्थ पर भी सवाल किया। वे कोई उत्तर नहीं दे पाए पर अपने मत पर दृढ़ रहे। उनकी नाराजगी का खतरा उठाकर मैंने उनसे कहा - हमारी गौरवशाली संस्कृति निश्चित ही खतरे में है और उसे संकट में डालने वाले हिंदुत्व शब्द को गढ़ने और उसके लिए उन्माद पैदा करने वाले लोग ही हैं। 

पूरे देश में निकली शोभा यात्रा का पैटर्न इतना मिलता जुलता था कि इसे हिन्दू समाज के स्वतः उत्साह और अपने प्रभु राम के प्रति उसकी श्रद्धा की सहज अभिव्यक्ति के रूप में देखना अतिशय भोलापन ही कहा जाएगा। इनके आयोजन की तैयारी किसी चुनावी रैली की भांति की गई थी, हम जानते हैं कि चुनावी रैलियों के "प्रबंधन" की शुरुआत धर्म और नीति को कूड़ेदान में डालने से होती है। शोभा यात्राओं के "प्रबंधन" में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे समाज के संपन्न और अग्रणी लोगों जिनके पास अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन करने के लिए अवकाश भी होता है एवं संसाधन भी इसलिए ऐसे हर आयोजन में उनकी सक्रियता दिखती ही है। हर चुनाव और हर सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रम की सफलता में किशोर और युवा वर्ग की भागीदारी भी होती ही है। 

बिना पेट्रोल खर्च की चिंता किए तेज मोटरसाइकिल दौड़ाने का अवसर, नई पोशाकों में सजना, विशाल ध्वजों के साथ संतुलन बनाना, जेब खर्च मिलने का आश्वासन और उस नेता की हौसलाअफजाई करती भीड़ जिससे बात करना भी सपने जैसा लगता है, किसी भी निम्न मध्यमवर्गीय युवा को पागल बना सकते हैं। इसके साथ अब तो युवा जोश और आक्रोश को एक आसान एवं निरीह शिकार भी दे दिया गया है। कई जगह शोभा यात्राओं में एक दृश्य समान था - प्रत्येक समाज की टोली का नेतृत्व तलवारें लहराती महिलाएं और किशोर-किशोरियां कर रहे थे। वीर और वीरांगनाओं की मुद्रा में तलवार के साथ सेल्फी लेना निश्चित ही रोमांचक रहा होगा। लेकिन हम सब यह भूल रहे हैं कि तलवार जब चलती है तो एक जीवन समाप्त हो जाता है, कोई माँ अपना बच्चा खो देती है, कोई स्त्री विधवा हो जाती है, कोई बच्चा अनाथ हो जाता है, कोई परिवार उजड़ जाता है। विनम्रता राम के व्यक्तित्व का आभूषण था। 

लगभग हर प्रदेश में - और आश्चर्यजनक रूप से विपक्षी दलों द्वारा शासित प्रदेशों में भी इन शोभा यात्राओं का स्वरूप एक जैसा था । उकसाने, भड़काने और डराने वाला। जहाँ कट्टरता का जहर अभी फैल नहीं पाया है वहां मुस्लिम समुदाय ने इन शोभा यात्राओं का भरपूर स्वागत-सत्कार किया और कौमी एकता की मिसाल कायम की। जिन प्रदेशों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां उनके पास यह अवसर था कि वह अपने प्रदेश में राम के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर उनके आदर्शों की स्थापना करते गरिमामय आयोजनों को बढ़ावा देते किंतु जिस तरह वे कट्टर हिंदुत्व के समर्थकों के साथ खड़े नजर आए वह चौंकाने वाला और निराशाजनक था। इन शोभा यात्राओं के आक्रामक तेवर के साथ भगवा रंग को संयोजित किया गया था। त्याग, बलिदान, शांति, सेवा एवं ज्ञान जैसी अभिव्यक्ति को स्वयं में समाहित करने वाले भगवा रंग को "राजतिलक की करो तैयारी, आ रहे हैं भगवाधारी" जैसे चुनावी नारे में रिड्यूस होते देखा।

राम यदि मॉरिशस, वेस्टइंडीज, अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, जापान, ईरान, ईराक, सीरिया, इंडोनेशिया, नेपाल, लाओस, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, मलेशिया और श्रीलंका जैसे देशों में सम्मान एवं श्रद्धा अर्जित करते हैं तो इसका एकमात्र कारण यही है कि राम ने हर देश को अवसर दिया है कि वह उन्हें अपने रंग में रंग ले, अपनी लोक संस्कृति में - अपनी धर्म परंपरा में समाहित कर ले। मंचित और मुद्रित रामकथाओं का वैविध्य असाधारण एवं चमत्कृत करने वाला है और ऐसा केवल इस कारण है कि राम ने स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकीर्णता में कभी नहीं बांधा। वे जिस देश में पहुंचते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं। बल्कि यह कहना उचित होगा कि हर देश प्रेरणा और आश्वासन के लिए अपना राम गढ़ लेता है। कितनी ही भाषाओं के कवि राम से प्रेरित हुए हैं, कितनी ही भाषाओं में रामकथा रची और गाई गई है, हर कवि ने राम को अपने ढंग से गढ़ा-समझा है। ऐसे व्यापक और उदार राम पर कोई संगठन, दल, विचारधारा या संप्रदाय अपना ठप्पा लगाने की चेष्टा करेगा तो यह निश्चित जानिए कि वह राम का रामत्व छीन रहा है। वह उन्हें किसी जन्म भूमि, किसी मंदिर, किसी रंग में बांधना चाहता है। बंधुत्व एवं मैत्री के पोषक शांतिप्रिय राम का उपयोग हिंसा के लिए करना शर्मनाक, अशोभनीय और निंदनीय है। पता नहीं हिंसक नारे लगा रहे नवयुवकों ने रामचरित मानस को हाथ भी लगाया है या नहीं लेकिन इतना तो तय है कि उन्होंने हिंसा के लिए अनिच्छुक राम को जरा भी नहीं समझा है। हमेशा संवाद और शांति के हर प्रयत्न के विफल होने के बाद ही राम विवश होकर शस्त्र उठाते हैं। वे युद्ध प्रिय नहीं हैं, युद्ध उन पर थोपा गया है। जो राम को शत्रु समझ रहा है उसके प्रति भी राम के मन में करुणा है।

आपसे बहुत कुछ छीना जा चुका है। गांधी, सुभाष, आंबेडकर, पटेल, भगत सिंह सबके सब भव्य मूर्तियों और स्मारकों में कैद किए जा चुके हैं। इनके विचारों की हत्या की जा रही है। इन पर अब विचारधारा विशेष के अनुयायियों का पेटेंट और कॉपीराइट है। अब बारी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की है। अमर्यादित हिंसा के समर्थक और नफरत के सौदागर आपसे आपके राम को छीनना चाहते हैं। अभी देर नहीं हुई है। अपने पूजाघरों में करुणामय नेत्रों और आश्वासनदायी सस्मित मुस्कान वाली राम की छवि को तलाशिये। विशाल धार्मिक साम्राज्य के संचालक धर्म गुरुओं की बातों पर भरोसा मत कीजिए। उनके आर्थिक हित और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उन्हें मजबूर कर रही हैं कि वे सत्ता के राम को ही असली राम के रूप में प्रस्तुत करें। राम से मिलने के लिए किसी बिचौलिए या मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। वह आपके निकट ही हैं, जब भी आप अराजक, हिंसक और युद्धोन्मादी होने की ओर बढ़ते हैं तब आपके अंदर बैठे राम शील, शालीनता, विनम्रता, प्रेम, दया, करुणा और क्षमा का संदेश देते हैं। उनके स्वर को अनसुना मत करिए।

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